Tuesday, December 7, 2010

पर अब वो मुठ्ठी कहाँ होती है ????

पर अब वो मुठ्ठी कहाँ होती है ??

एक मुठ्ठी नीला आसमान ,
एक मुठ्ठी पीला खलिहान
एक मुठ्ठी चीडियो को दाना
एक मुठ्ठी बागो के फूल
एक मुठ्ठी मिट्टी की धूळ ,
एक मुठ्ठी हंसती सी धूप
...............................
एक मुठ्ठी खाली समय ,
एक मुठ्ठी आवारा नजर ,
एक मुठ्ठी उसका अपनापन,
एक मुठ्ठी मेरा दीवानापन ,
पर अब वो मुठ्ठी कहाँ होती है ????

Wednesday, December 1, 2010

सिर्फ एक आस थी वो ..............


सांवली सी सूरत , मोहिनी सी मूरत थी वो
किसकी बांसुरी , किसी धुन थी वो ,
मीरा की न राधा की न वो ,
कृष्णा की तान न मुरली की ध्यान थी वो ,
किसकी नज़र से देखूं तुझको ,
सुबह की शाम की
सिर्फ एक आस थी वो ..............

Monday, November 8, 2010

यकीनन ...................

यकीनन ....................
रिश्तों में जब स्वार्थ रुपी घुन लगता है ,
बना देता है जिन्दगी को एक नासूर ,
फिर वो सड़ने ,गलने लगते हैं ,
फिर सबसे बेहतर इलाज ये है कि ,
एक कैंसर के कीड़े की तरह आपको ,
पूरा का पूरा खा जाए ,उस से पहले ,
उस रिश्ते रुपी अंग को ही .........
काट कर फेक क्यों न दिया जाए ,
सड़ी हुई दुनिया के सड़े हुए लोगों ,
अभी भी वक़्त है उठ जाओ और
दो किसी जरूरत मंद को ,थोड़ी सी
हमदर्दी ,और थोडा सा प्यार
उन सबसे कहीं ज्यादा
सिर्फ और सिर्फ थोडा सा विश्वास
हम सबने सुना है ,और माना भी तो है कि
प्यार और विश्वास तो दुनिया बदल सकता है ,
एक संगमरमर को ताजमहल में बदल सकता है ,

Wednesday, October 27, 2010

सिन्दूरी सूरज

सिन्दूरी सूरज आ ही जाता है हर रोज ,
आ के टंक जाता है माथे पे हर रोज ,
अब वो दूर चला गया है हमसे ,
और दिख रहा है पूरा का पूरा ,
सिन्दूरी सूरज तुम दूर ही रहना हमसे ,
वहाँ आसमान में रोज देख तो पायेंगे तुम्हे ,
दूर से कुछ कह तो पायेंगे तुमसे ,
कुछ यहाँ की ,कुछ उस जहां की ,
जहां है सिर्फ एक मौन और खामोशी का ,
विस्तार ही विस्तार ...................
...............................................
.कभी कभी तो आना मिलने..............
तुम सुन रहे हो न सिन्दूरी सूरज ??????????

Sunday, October 10, 2010

अनवरत ......... यानि की बिना रुके हुए

अनवरत .........
यानि की बिना रुके हुए

बचपन में दीवाली के दिए से तराजू बनाया करते थे ,
उनका संतुलन साधने के प्रयास में वो ,
वो छोटे हाथ कांपने लगते थे ,
पर धीरे -धीरे हाथ बड़े होते गए ,
संतुलन भी बढ़ता गया ,
तराजू के पलड़ों में ,
आंसू और मुस्कान रखते गए ,
कोशिश इसी बात की रही की
मुस्कान का पलड़ा भारी ,
हो जाए ,
आंसू और मुस्कान अब भी ,
तराजू के पलड़ों पर
नज़र आ जाते हैं अब भी ,
पर मुस्कान का पलड़ा कभी भारी नहीं होता ,
जिन्दगी की इस आपाधापी में ,
सब कुछ देखकर भी
नजरअंदाज कर देती हूँ ,
चल पड़ती हूँ अपने घर की ओर
आंसू और मुस्कान में संतुलन
साधने के प्रयास में
अनवरत ................................
यानि की बिना रुके हुए

Sunday, October 3, 2010

लघुकथा: रेजिगनेशन लेटर (दुर्गा पूजा विशेष)


बनर्जी बाबू ऑफिस की मारामारी से परेशान रहते थे। और आजकल तो अपने बंगाल की लोक संस्कृति को जीवित रखने की इच्छा सनक की हद तक बढ़ चुकी थी |ज्यादा से ज्यादा लोग आयें ,पंडाल को भी पुरस्कार मिल जाय तो क्या कहना! इन दिनों उनकी जिन्दगी दो पाटों में पिस कर रह गई थी |

बीबी तो सहयोग के नाम पर दूर से ही सलाम कर देती थी |मछली -चावल बना कर खाना ,उसके बाद अपने शरीर को किसी भी हद तक बढ़ने के लिए छोड़ते हुए,सारे दिन सोना। आख़िर कोई इतना कैसे सो सकता है? बच्चे अपने कामों में मशगूल थे कि उनसे कुछ कहना सुनना बेकार था। रविन्द्र नाथ की पंक्तियाँ ही उनका सहारा थी(जोदि केऊ डाक सूने ना तोमार ,एकला चोलो रे )कोई तुम्हारी पुकार सुने ना तो अकेले ही चलो। उन्हें मन ही मन गुनगुनाते हुए सुबह शाम दुर्गा पूजा की तैयारी का जायजा लेने पंहुचते थे |गीत -संगीत के कार्यक्रम ,कुछ स्टाल्स स्पोंसर करके कुछ ज्यादा कलेक्शन हो सकता है इस बार।
सारे इंतजाम का जिम्मा उनपर ही था। सब ने उन्हें "बंगाली कल्चरल असोसिअशन " का प्रेसिडेंट जो बना दिया था। "सबसे ज्यादा जिम्मेदार बनना भी ठीक नही होता है या ठीक होता है?" इसी कशमकश के बीच पंडाल की तैयारी देखने पहुंचे। वहाँ पहुचते ही पता लगा कि एक आदमी पंडाल लगाते-लगाते गिर गया है। पैर की हड्डी दो जगह से टूट गई ,इलाज में बीस हजार का खर्चा आएगा। परिवार के सभी लोग गांव में रहते हैं। बनर्जी जी अपनी इस ताजा मुसीबत को देख कर बदहवाश हो गए |उससे मिलने पर पता लगा की वह पाँच सौ रुपये महीने गाँव में भी भेजता था |
पार्टी की कैटरिंग में एक मिठाई और एक सब्जी कम कर देने पर भी सिर्फ़ दो से तीन हजार रुपये ही बच पायेंगे। बनर्जी जी की हालत सिर्फ़ वो ही जानते थे। देखें दुर्गा माँ क्या चमत्कार दिखाती हैं इस बार ?
पंडाल को नॉर्थ जोन का ग्यारह हजार रुपये का अवार्ड मिल ही गया। बनर्जी जी ने एक ठंडी साँस ली सारे रुपये ११०००+३००० +५००० (जो पिछले साल की बचत हुई थी )=१९००० इकट्ठे किए |अगले दिन बेंगाली असोसिएशन की मीटिंग में उन १९००० रुपये का हिसाब दिया।उसमे १००० रुपये अपने पास से मिलाये। एक लिफाफे में रखे और उन सभी को बताया कि ये वो उस मजदूर को देने जा रहे हैं। दूसरा लिफाफा वाइस-प्रेसिडेंट मोहंती जी को दे कर स्कूटर स्टार्ट करके चले गए |
दूसरे लिफाफे को खोलने कि जरूरत नही थी किसी को

--नीलम मिश्रा
(पिछले एक सप्ताह से गन्दी बनियाने पहने सारे दिन हथौडी की ठक-ठक करते हुए,मजदूरों को देखकर दिमाग में यह विचार आया कि बेस्ट पंडाल बनाने वाले को क्या कभी कोई इनाम मिलता है वाकई ????)

Tuesday, September 14, 2010

मासूम सा मन था वो क्यों सोया

त्रिवेणी -कहते हैं शायद इसे

कभी तन्हाईओं में वो गले लगकर इतना रोया


मासूम सा मन था वो क्यों सोया


हिचकियों की आवाजें अभी तक आ रही हैं कहीं दूर से

Tuesday, August 31, 2010

जन्माष्टमी का पर्व और बजरंगबली की जय

जन्माष्टमी का पर्व और बजरंगबली की जय

बाबा झांकी सजायिये ना ,बाबा आपको झांकी सजानी ही पड़ेगी हमे कुछ नहीं पता ,वो बाल -मन ये समझ ही नहीं पाया की बाबा आज बहुत उदास हैं क्यूंकि उनके पोते ,पोती और बेटे बहू ने जो अक्सर उनसे मिलने आते थे ,पिक्चर जाने का प्रोग्राम बनाया है ,और उधर से ही वो लोग घर चले जायेंगे ,बाबा कभी उन लोगों से कुछ नहीं कहते थे ,कभी कोई बात नहीं करते थे बस चुपचाप उनके आने से पहले सारा सामान ला कर रख देते थे ,बाबा से मिलने जाने की बैचैनी बढती जाती थी पर जब तक वो लोग रहते हम हाशिये पर खड़े रहते थे ,और मन ही मन सोचते कि
कब ये लोग जाएँ और हम बाबा के साथ जी भर के बात करें ,पर जब वो लोग होते तो हम दूसरे लोग हो जाते थे ,किरायेदार तो थे हम लोग, पर वो कैसा रिश्ता था हमलोगों का उनसे कोई समझ नहीं सकता .अपने पहले से तय प्रोग्रम के अनुसार वो लोग चले गए और पूरा घर खाली, एक सन्नाटा सा पसर गया ,बाबा बहुत उदास थे हमने समझ लिया था और उनकी उदासी हम ही भगा सकते थे
बाबा अब तो आप झांकी नहीं सजायेंगे हमे पता है आप उदास हैं वो लोग चले गए ना ...........इसलिए .
पर हमलोग तो हैं ना बाबा,आप झांकी सजायिये ना ,बाबा हमारी जिन्दगी का एक अहम हिस्सा थे वो ,गीता पढ़ते और हम भी उनके साथ पढने की कोशिश करते ,
काफी जिद करते और और वो हमारी जिदों को सुनकर या इतना प्यार गैरों से पाकर अपना चेहरा अखबार में छुपा लेते थे .वो अपने आंसू कभी हमे दिखाना नहीं चाहते थे कहीं इतना बड़ा इंसान भी
रोता है कहीं ...........
शाम को एक बार फिर , आप झांकी नहीं सजायेंगे ना ..बाबा कुछ नहीं बोले चुपचाप अखबार पढने का ढोंग करने लगे .
बुझे मन से खाना खाया और सो गए ....
रात के १२ बजे हमे उठाया गया और ले जाया गया,हमारे आश्चर्य की कहीं कोई सीमा नहीं थी वहाँ पर आरती हो रही थी,झांकी भीसजी हुई थी ......
भये कृष्ण कृपाला दीनदयाला कौशल्या हितकारी
बाबा सिर्फ हमे देख रहे थे उन्होंने पूरी आरती में एक बार भी कृष्ण भगवान् को नहीं देखा
पूरे घर में जैकार लग रही थी बोलो बांके बिहारी की ,बोलो यशोदा मैया की ,बोलो नन्द गोपाल की वो छोटी सी लड़की जोर से बोली, बोलो बजरंगबली की जय..............
बाबा और वो हस दिए
बाबा का नाम था बजरंग बली तिवारी और उस लड़की का नाम था .............................
बाबा आज इस दुनिया में नहीं है ,आखिरी वक़्त ये लड़की उनके पास नहीं थी ................
पर आज भी नहीं भूली उन्हें और न ही जैकारा लगाना उनके नाम का
तो जन्माष्टमी के पावन पर्व पर आप भी मेरे साथ बोलिए
" बजरंगबली की जय"

Thursday, August 5, 2010

दामन -ए -कोह

दामन -ए -कोह था ,
वो जन्नत का नूर था
कोह -ए नूर था ,
कभी जो काश्मीर था...............

Monday, August 2, 2010

बड़ी बेटी

बड़ी बेटी
फूलमती जरा इधर ठीक से लगाना झाड़ू ,अब तुम एक दिन की भी छुट्टी लेती हो तो हमसे काम ठीक से नहीं होता ,"अरे भाभी आप रहने दो मै अभी सब सफा कर दूँगी "कहते हुए फूलमती मेरे निर्देशों का पालन करने लगी, वो क्या हुआ कल तुम अपने बच्चों का दाखिला करवाने गयी थी ?"जी भाभी मै कल गए थी , मझली और उससे छोटी वाली का दाखिला करवा दिया है .अच्छा किया
शिक्षा का असर तो दीखता ही है ,फूलमती सिर्फ चार क्लास पढ़ी है ,पर उसके कपडे पहनने का सलीका ,उसके बात करने का ढंग उसे और कामवालियों से कहीं बेहतर स्थान देता था .यही सोच रही थी कि काम कुछ भी हो पढ़ाई कहीं न कही दिखती जरूर है ,एकदम से दिमाग में कहीं कौंधा कि बड़ी बेटी क्यूँ नहीं ..............................
वो खुद ही बोली भाभी जब मै घर गयी तो बड़ी वाली बेटी ने पूछा कि नाम लिखवा दिया है क्या .......पर मै उससे नजरें नहीं मिला पायी क्यूंकि उसकी पढ़ाई तीन क्लास के बाद रुकवा दी है मैंने ,
बेटे को संभालने के लिए भी तो कोई चाहिए था घर में ...

Monday, July 12, 2010

क्यूँ ????????????????

कैसे -कैसे सवालात लेकर हम घर से निकले !
जो आज भी हमारे साथ हैं
उन सवालों का कोई जवाब नहीं है किसी के पास !
क्यूँ जिन्दगी जीती जानी है ?
क्यूँ उमीदें मरती जानी हैं ?
क्यूँ किस्मत हमको बार बार आजमाती है ?
क्यूँ हमे दरियादिली देकर ,
तंगदिली अपनानी है ,
क्यूँ
बे - बजह
बे -रास्ता
बे - मंजिल
हमे चलते जानी है
वो जिन्दगी जो शुरू हुई ,
और ख़तम भी हुई
अभी यहीं से !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

Wednesday, June 9, 2010

कुछ भी हो सकता है

अँधेरा बैठा है कोने में गुमसुम सा
जाओ उसे गोद में उठाओ ,
और प्यार करो,
जब वह खिलखिलाने लगे ,
तो समझना दिन निकल आया है ,
वाह री किस्मत ....................
रात को जाना है
तो दिन को आना है
और जब दिन को ......
तब रात को आना है
दो सिरे रात और दिन के
इन्हे एक साथ गले मिलते
प्यार करते ,
खिलखिलाते हुए
देखना है
कैसे .....................................
ये तो खुदा जाने
सुना है ,
अल्लाह की रहमत हो
तो कुछ भी हो सकता है
कुछ भी हो सकता है
कुछ भी हो सकता है.....................................

Tuesday, May 4, 2010

बेमानी नहीं होता

बेमानी नहीं होता
रूह से रूह का रिश्ता बेमानी नहीं होता ,
कहीं जंगल तो कहीं पानी नहीं होता ,
ये जो दरिया है या समंदर है ,पुरसुकूं है ,
वो तेरे जाने से भी कभी खाली नहीं होता

Tuesday, April 13, 2010

मेरी प्यारी दादी माँ(अम्मा ) के लिए जो एक प्यारा सा तारा बन के हम सबको देखती हैं,पर उम्र के जिस पड़ाव पर हमने उन्हें देखा था ,वो कुछ यूँ ही था

अहसास है न अहसान कोई ,
जिन्दगी धूप की तरह गुजरती गई ,
और चेहरे पर झुर्रियां साया बनकर उभरती रहीं
उम्र के इस पड़ाव पर अब कोई नही है साथ ,
पर उम्र तो गुजरती है ,गुजरती गई ,
वक्त चलता रहा मेरे पैरों के साथ
या यूँ कहे कि पैर चलते रहे मेरे वक्त के साथ ,
सुबह से शाम तक ,दिन से रात तक ,
जिन्दगी बढती और बढती रही
इन सूनी आँखों में देखा तो पाया ,
न कोई रहबर न साया ,
मगर उम्र तो उम्र है गुजरती गई ,गुजरती रही

Wednesday, April 7, 2010

एस्कोर्टस में वो एक दिन

हमारा भी दिल का ही मसला है जनाब ,
१७ साल की उम्र से परहेज और दवाइयों के साथ जिन्दगी के ३९ बसंत देख चुकी हूँ ,अभी बहत कुछ बाकी है करने को,तो जनाब" दिल ही तो है न संग दे "पर इसकी मजाल हम भी जिद्दी और अड़ियल ठहरे ,तो कुछ भी हो जीना तो है ही ,३८ वे बसंत में इतने झटके शरीर ने खाए की दिल और दिमाग आपस में जंग करने लगे की कोई भी दुरुस्त नहीं रहेगा ,पर उन्हें अहसास नहीं कि गोया किसके शरीर में घुसे हैं ,
एस्कॉर्ट्स के एक डॉक्टर से तसल्ली मिली कि अभी बलूनिंग से काम चलाया जा सकता है ,कुदरत का करिश्मा देखिये
कि डॉक्टर भी वही जिसने कभी लखनऊमें ऑपरेशन किया था ठीक २० साल पहले (मानना पड़ा कि दुनिया बहुत छोटी है )
सारी बातों से निपटने के बाद ,आराम फरमा रहे थे कि सामने वाले बिस्तर पर एक पाकिस्तानी दम्पति आये छोटा सा बेटा साथ में था ,उसकी सर्जरी होनी थी ,हमने उनसे सब मालूमात कि सिर्फ इस अहसास के लिए इस वतन में भी उनकी फिकर दूसरों को भी है ,जब हम वापस मुड़ने लगे तो उन्होंने पूछा ,
जी आपका क्या मसला है ?
हमने मुस्कुराते हुए जवाब दिया
जी हमारा भी दिल का ही मसला है

कही गजल की ये लाइनें काफी करीब हैं ,

वो उम्र कम कर रहा था मेरी ,
मै साल अपने बढ़ा रहा था

खुदा हाफ़िज