Wednesday, October 27, 2010

सिन्दूरी सूरज

सिन्दूरी सूरज आ ही जाता है हर रोज ,
आ के टंक जाता है माथे पे हर रोज ,
अब वो दूर चला गया है हमसे ,
और दिख रहा है पूरा का पूरा ,
सिन्दूरी सूरज तुम दूर ही रहना हमसे ,
वहाँ आसमान में रोज देख तो पायेंगे तुम्हे ,
दूर से कुछ कह तो पायेंगे तुमसे ,
कुछ यहाँ की ,कुछ उस जहां की ,
जहां है सिर्फ एक मौन और खामोशी का ,
विस्तार ही विस्तार ...................
...............................................
.कभी कभी तो आना मिलने..............
तुम सुन रहे हो न सिन्दूरी सूरज ??????????

Sunday, October 10, 2010

अनवरत ......... यानि की बिना रुके हुए

अनवरत .........
यानि की बिना रुके हुए

बचपन में दीवाली के दिए से तराजू बनाया करते थे ,
उनका संतुलन साधने के प्रयास में वो ,
वो छोटे हाथ कांपने लगते थे ,
पर धीरे -धीरे हाथ बड़े होते गए ,
संतुलन भी बढ़ता गया ,
तराजू के पलड़ों में ,
आंसू और मुस्कान रखते गए ,
कोशिश इसी बात की रही की
मुस्कान का पलड़ा भारी ,
हो जाए ,
आंसू और मुस्कान अब भी ,
तराजू के पलड़ों पर
नज़र आ जाते हैं अब भी ,
पर मुस्कान का पलड़ा कभी भारी नहीं होता ,
जिन्दगी की इस आपाधापी में ,
सब कुछ देखकर भी
नजरअंदाज कर देती हूँ ,
चल पड़ती हूँ अपने घर की ओर
आंसू और मुस्कान में संतुलन
साधने के प्रयास में
अनवरत ................................
यानि की बिना रुके हुए

Sunday, October 3, 2010

लघुकथा: रेजिगनेशन लेटर (दुर्गा पूजा विशेष)


बनर्जी बाबू ऑफिस की मारामारी से परेशान रहते थे। और आजकल तो अपने बंगाल की लोक संस्कृति को जीवित रखने की इच्छा सनक की हद तक बढ़ चुकी थी |ज्यादा से ज्यादा लोग आयें ,पंडाल को भी पुरस्कार मिल जाय तो क्या कहना! इन दिनों उनकी जिन्दगी दो पाटों में पिस कर रह गई थी |

बीबी तो सहयोग के नाम पर दूर से ही सलाम कर देती थी |मछली -चावल बना कर खाना ,उसके बाद अपने शरीर को किसी भी हद तक बढ़ने के लिए छोड़ते हुए,सारे दिन सोना। आख़िर कोई इतना कैसे सो सकता है? बच्चे अपने कामों में मशगूल थे कि उनसे कुछ कहना सुनना बेकार था। रविन्द्र नाथ की पंक्तियाँ ही उनका सहारा थी(जोदि केऊ डाक सूने ना तोमार ,एकला चोलो रे )कोई तुम्हारी पुकार सुने ना तो अकेले ही चलो। उन्हें मन ही मन गुनगुनाते हुए सुबह शाम दुर्गा पूजा की तैयारी का जायजा लेने पंहुचते थे |गीत -संगीत के कार्यक्रम ,कुछ स्टाल्स स्पोंसर करके कुछ ज्यादा कलेक्शन हो सकता है इस बार।
सारे इंतजाम का जिम्मा उनपर ही था। सब ने उन्हें "बंगाली कल्चरल असोसिअशन " का प्रेसिडेंट जो बना दिया था। "सबसे ज्यादा जिम्मेदार बनना भी ठीक नही होता है या ठीक होता है?" इसी कशमकश के बीच पंडाल की तैयारी देखने पहुंचे। वहाँ पहुचते ही पता लगा कि एक आदमी पंडाल लगाते-लगाते गिर गया है। पैर की हड्डी दो जगह से टूट गई ,इलाज में बीस हजार का खर्चा आएगा। परिवार के सभी लोग गांव में रहते हैं। बनर्जी जी अपनी इस ताजा मुसीबत को देख कर बदहवाश हो गए |उससे मिलने पर पता लगा की वह पाँच सौ रुपये महीने गाँव में भी भेजता था |
पार्टी की कैटरिंग में एक मिठाई और एक सब्जी कम कर देने पर भी सिर्फ़ दो से तीन हजार रुपये ही बच पायेंगे। बनर्जी जी की हालत सिर्फ़ वो ही जानते थे। देखें दुर्गा माँ क्या चमत्कार दिखाती हैं इस बार ?
पंडाल को नॉर्थ जोन का ग्यारह हजार रुपये का अवार्ड मिल ही गया। बनर्जी जी ने एक ठंडी साँस ली सारे रुपये ११०००+३००० +५००० (जो पिछले साल की बचत हुई थी )=१९००० इकट्ठे किए |अगले दिन बेंगाली असोसिएशन की मीटिंग में उन १९००० रुपये का हिसाब दिया।उसमे १००० रुपये अपने पास से मिलाये। एक लिफाफे में रखे और उन सभी को बताया कि ये वो उस मजदूर को देने जा रहे हैं। दूसरा लिफाफा वाइस-प्रेसिडेंट मोहंती जी को दे कर स्कूटर स्टार्ट करके चले गए |
दूसरे लिफाफे को खोलने कि जरूरत नही थी किसी को

--नीलम मिश्रा
(पिछले एक सप्ताह से गन्दी बनियाने पहने सारे दिन हथौडी की ठक-ठक करते हुए,मजदूरों को देखकर दिमाग में यह विचार आया कि बेस्ट पंडाल बनाने वाले को क्या कभी कोई इनाम मिलता है वाकई ????)