तथास्तु ..........(ऐसा ही हो )
क्यूंकि हँसना जरूरी है
हँसो अपने आप पर ,
अपनी नाकामियों पर ,
अपने दुचिन्तन पर ,
अपनी दुश्वारियों पर ,
अपनी कुंठाओं पर ,
अपनी स्वार्थपरता पर ,
अपनी चाटुकारिता पर ,
अपनी क्षुद्र संकीर्णता पर
या फिर
अपनी अस्वस्थ मानसिकता पर
.......................................
दूसरों पर कभी मत हँसो ............
हँसना ही है तो
दूसरों की दूसरों को नाकामयाब करने कि कोशिश पर
उनकी गन्दी राजनीति के दांवपेंच पर
उनकी झूठी छल प्रपंचना पर
उनके किये गए तिरस्कार पर
उनके हतोत्साहित मनोभाव पर
उनके भेदभाव पर ,,उनके जातिवाद पर
याद करते हुए कि इससे पहले खुल कर कब हसे थे ,
कोशिश करो कि इस बार पहले से ज्यादा ही हँसो
इस उम्मीद के साथ कि अगली बार न हो
कोई भी वजह इनमे से हँसने की.............
तथास्तु ....................
क्या अमरों का लोक मिलेगा तेरी करुणा का उपहार? रहने दो हे देव! अरे यह मेरा मिटने का अधिकार
Wednesday, July 13, 2011
Sunday, July 10, 2011
तुम क्यूँ समझोगे ?????
तुम क्यूँ समझोगे ?????
कितनी बार मना किया ,
कि
ऐसे नहीं करते
कि
कभी किसी पर भी
बेवजह फब्तियां नहीं कसते
पर
तुम तो तुम थे ,
सुधरने की भी कोई गुज्जाइश कहाँ थी ??
सोचती रही ,
शायद आज नहीं तो कल तुम समझ जाओगे
कि
हम सब एक ईश्वरीय अंश हैं ,
सब ईश्वर
कि
एक श्रेष्ठ कृति हैं ,
पर तुम्हारे अहम औए तुम्हारे झूठे स्वाभिमान ने
तुम्हे शायद स्वयम सीखा दिया
कि
" अहम ब्रह्मास्मि "
अब तुम्हे कौन समझाए
कि
ब्रह्मा जी ने भी गलतियाँ तो की ही थी ...........
कितनी बार मना किया ,
कि
ऐसे नहीं करते
कि
कभी किसी पर भी
बेवजह फब्तियां नहीं कसते
पर
तुम तो तुम थे ,
सुधरने की भी कोई गुज्जाइश कहाँ थी ??
सोचती रही ,
शायद आज नहीं तो कल तुम समझ जाओगे
कि
हम सब एक ईश्वरीय अंश हैं ,
सब ईश्वर
कि
एक श्रेष्ठ कृति हैं ,
पर तुम्हारे अहम औए तुम्हारे झूठे स्वाभिमान ने
तुम्हे शायद स्वयम सीखा दिया
कि
" अहम ब्रह्मास्मि "
अब तुम्हे कौन समझाए
कि
ब्रह्मा जी ने भी गलतियाँ तो की ही थी ...........
Wednesday, July 6, 2011
( दुखों की पोटली )
( दुखों की पोटली )
निकल पड़ी थी अनजान शहर में ,
अनजान चेहरों के बीच ,
कोई भी तो नहीं था जिसे पहचान सकूँ ,
कुछ विस्मय की स्थिति थी ,
पर अपने आप को सम्हालती हुई ,
अपने दुखों को सम्हालती हुई ,
चल ही पड़ी मै ,..........
उधर से राहगीर गुजरा ,
उसकी पोटली ठीक वैसी ,
जैसी की मेरी थी ,,
ईश्वर का चमत्कार था,
या फिर महज एक संयोग ,
दोनों की पोटली बदल गयी थी ,
अनजाने में ही ..............
अब दोनों ढो रहे थे,
एक दूसरे के दुःख
बिना किसी शिकायत के ,
मानो वजह मिल गयी हो ,
एक दूसरे को जीने की .............
(अमृता और इमरोज़ के नाम )
निकल पड़ी थी अनजान शहर में ,
अनजान चेहरों के बीच ,
कोई भी तो नहीं था जिसे पहचान सकूँ ,
कुछ विस्मय की स्थिति थी ,
पर अपने आप को सम्हालती हुई ,
अपने दुखों को सम्हालती हुई ,
चल ही पड़ी मै ,..........
उधर से राहगीर गुजरा ,
उसकी पोटली ठीक वैसी ,
जैसी की मेरी थी ,,
ईश्वर का चमत्कार था,
या फिर महज एक संयोग ,
दोनों की पोटली बदल गयी थी ,
अनजाने में ही ..............
अब दोनों ढो रहे थे,
एक दूसरे के दुःख
बिना किसी शिकायत के ,
मानो वजह मिल गयी हो ,
एक दूसरे को जीने की .............
(अमृता और इमरोज़ के नाम )
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