Sunday, October 10, 2010

अनवरत ......... यानि की बिना रुके हुए

अनवरत .........
यानि की बिना रुके हुए

बचपन में दीवाली के दिए से तराजू बनाया करते थे ,
उनका संतुलन साधने के प्रयास में वो ,
वो छोटे हाथ कांपने लगते थे ,
पर धीरे -धीरे हाथ बड़े होते गए ,
संतुलन भी बढ़ता गया ,
तराजू के पलड़ों में ,
आंसू और मुस्कान रखते गए ,
कोशिश इसी बात की रही की
मुस्कान का पलड़ा भारी ,
हो जाए ,
आंसू और मुस्कान अब भी ,
तराजू के पलड़ों पर
नज़र आ जाते हैं अब भी ,
पर मुस्कान का पलड़ा कभी भारी नहीं होता ,
जिन्दगी की इस आपाधापी में ,
सब कुछ देखकर भी
नजरअंदाज कर देती हूँ ,
चल पड़ती हूँ अपने घर की ओर
आंसू और मुस्कान में संतुलन
साधने के प्रयास में
अनवरत ................................
यानि की बिना रुके हुए

7 comments:

  1. खूबसूरत अभिव्यक्ति..उम्दा कविता....बधाई.
    कभी 'शब्द-शिखर' पर भी पधारें !!

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  2. एक संतुलित जीवन दर्शन -चरैवेति ...चरैवेति .....

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  3. आंसू और मुस्कान में संतुलन साधने के प्रयास चलते रहना ही जिंदगी है...
    बहुत खूब..

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  4. बड़ी मेहनत का काम है.. :-)
    कविता अच्छी है

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  5. याद हो आया..
    दिवाली के आसपास मिटटी के दीयों में सूतली धागे बाँध बाँध कर तराजू बनाया करते थे...
    अक्सर उसे खाली ही रख कर उसका बैलेंस चेक करते थे हम....और jab donon palde ek baraabar lagte to khud par kitnaa naaj hotaa thaa.....

    aapki kavitaa padhkar kitnaa kuchh yaad aa gayaa...

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  6. बहुत अच्छा लिखा है भाभी.
    यह दो पंक्तियाँ मेरी तरफ से... आप आगे लिखें...

    तराजू के पलड़ो में,
    रख कर आँसू और मुस्कान
    जी रहा है कैसे
    यह ज़िंदगी इंसान

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  7. बहुत बढ़िया नीलम जी,
    हमने कभी दिये से तराजू तो नहीं बनाई पर आपकी कविता पढकर इस बारे में जान गए :)

    बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है.
    शुभकामनाएं. :)

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