( दुखों की पोटली )
निकल पड़ी थी अनजान शहर में ,
अनजान चेहरों के बीच ,
कोई भी तो नहीं था जिसे पहचान सकूँ ,
कुछ विस्मय की स्थिति थी ,
पर अपने आप को सम्हालती हुई ,
अपने दुखों को सम्हालती हुई ,
चल ही पड़ी मै ,..........
उधर से राहगीर गुजरा ,
उसकी पोटली ठीक वैसी ,
जैसी की मेरी थी ,,
ईश्वर का चमत्कार था,
या फिर महज एक संयोग ,
दोनों की पोटली बदल गयी थी ,
अनजाने में ही ..............
अब दोनों ढो रहे थे,
एक दूसरे के दुःख
बिना किसी शिकायत के ,
मानो वजह मिल गयी हो ,
एक दूसरे को जीने की .............
(अमृता और इमरोज़ के नाम )
gr8...
ReplyDeletebahut khooob....
ReplyDeletesahi hai
ReplyDeletesach me amrita wa imroj the...jab aapne ye likha aur socha...:)
ReplyDeleteyaa aap dono...aur dukh kyon...uss potli me agar sukh ho to?????
god bless you!!
आपकी उम्दा प्रस्तुति कल शनिवार (09.07.2011) को "चर्चा मंच" पर प्रस्तुत की गयी है।आप आये और आकर अपने विचारों से हमे अवगत कराये......"ॐ साई राम" at
ReplyDeleteचर्चाकार:Er. सत्यम शिवम (शनिवासरीय चर्चा)
वाह, बहुत सुंदर।
ReplyDeleteआभार
woh kya bat hae bahut sundar
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