Tuesday, April 13, 2010

मेरी प्यारी दादी माँ(अम्मा ) के लिए जो एक प्यारा सा तारा बन के हम सबको देखती हैं,पर उम्र के जिस पड़ाव पर हमने उन्हें देखा था ,वो कुछ यूँ ही था

अहसास है न अहसान कोई ,
जिन्दगी धूप की तरह गुजरती गई ,
और चेहरे पर झुर्रियां साया बनकर उभरती रहीं
उम्र के इस पड़ाव पर अब कोई नही है साथ ,
पर उम्र तो गुजरती है ,गुजरती गई ,
वक्त चलता रहा मेरे पैरों के साथ
या यूँ कहे कि पैर चलते रहे मेरे वक्त के साथ ,
सुबह से शाम तक ,दिन से रात तक ,
जिन्दगी बढती और बढती रही
इन सूनी आँखों में देखा तो पाया ,
न कोई रहबर न साया ,
मगर उम्र तो उम्र है गुजरती गई ,गुजरती रही

5 comments:

  1. मगर उम्र तो उम्र है गुजरती गई ,गुजरती रही...
    अब तो तारा बन गई..!

    यह उम्र रूकती नहीं . दादी, माँ, साथ रहती नहीं बस यादें शेष रह जाती हैं... शायद इसी से जीवन में इतनी रोचकता बनी हुई है।

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  2. नीलम जी , बहुत अच्छा लिखा है . बधाई ।

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  3. माँ महान है ।
    प्रशंसनीय रचना ।

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  4. न कोई रहबर न साया ,

    खुद को रहबर बना लो
    साये भी साथ चलने लगेंगे
    सुन्दर रचना

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  5. अरुणेश जी ,वर्मा जी ,व् पाण्डेय जी ,आप सभी का शुक्रिया आपकी टिप्पणी सैदव मार्गदर्शन करती है .

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